पर्यावरण का बदलता स्वरूप- गंभीर चुनौती

हिमाचल जनादेश
आधुनिक युग में विकास के कई आयाम स्थापित किये हैं। विकास निस्संदेह किसी भी समाज व राष्ट्र की आवश्यकता होती है जो अनिवार्य भी है ।
हमने बहुत ऊंची ऊंची गगनचुम्बी ईमारते बना ली। सड़कों व रेलवे का जाल विछा दिए.. बड़े बड़े आधुनिकता से सम्पन्न शहर बना दिए। बढ़ती जनसंख्या की जरुरतों को पूरा करने के लिए बड़े बड़े कारखाने व फैक्टिरियां बना दी जिसके लिए किसी न किसी रुप में प्राकृतिक पर्यावरण व संसाधनों का भरपूर दोहन किया जा रहा है।
विद्युत उत्पादन करने के लिए पहाडों का सीना चीर कर जर्जर कर दिया। नदियों के जलस्तर में निरंतर होती कमी आसपास के पर्यावरण को प्रभावित कर रही है , दरकते पहाड़ हर समय लोगों के जीवन में खतरे की घंटी बन कर खौफ पैदा कर रहे हैं। कहीं पर वर्षा के लिए तरसते लोग, तो कहीं पर अतिवृष्टि ने कहर ढाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है।
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यह कैसा विकास है जो अनमोल मानव जीवन को हर समय भयभीत व आतंकित कर रहा है। वास्तव में चिंता उन लोगों को होती है जो इसके भुक्तभोगी होतें हैं। आलीशान कमरों में रहने और योजनाएं बनाने वाले लोग शायद ही इन बातों को महसूस कर सकते हैं.क्योंकि उन के पास सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं होती। धरातल पर पर्यावरण के दुष्प्रभावों को दूर कर ने के लिए कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है।
विकास के लिए किये जा रहे प्रकृति से खिलवाड़ की भरपाई करना अत्यंत अनिवार्य है। आवश्यकता है इस बात की कि पर्यावरण में सामंजस्य बनाए रखने के लिए बनाई गई योजनाओं पर प्रतिबद्धता और प्राथमिकता के आधार पर और कठोर कदम उठाने की जरूरत है। आने वाली पीढ़ी इन खतरों से बच सके इसलिए पर्यावरण के सामंजस्य पूर्ण विकास को अत्यंत महत्व दिया जाना चाहिए।
मानव जीवन अनमोल है, विकास के किसी भी पहलु में इस बात को हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए अन्यथा आने वाला वक्त कैसा होगा इसका अनुमान अभी से लगाया जा सकता है।
विक्रम वर्मा
स्वतंत्र लेखक, चम्बा हि.प्र.
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